भारत मल्होत्रा
एम्बेसेडर भी गजब कार है। सिर्फ दरवाजा बदलता है और बदल जाती है इंसान की औकात। जी औकात सही सुना आपने। नहीं यकीन आता तो गौर फरमाइए। एक इंसान सफारी सूट पहने एक सफेद एम्बेसेडर से उतरता है तो आपकी नजरों में वो कौन है। जाहिर सी बात है जवाब आएगा अरे कोई वीआईपी होगा और क्या एम्बेसेडर उनकी ही तो कार है। लेकिन अगला सवाल अगर यह हो कि वो आदमी अगले गेट से उतरे तो आपका जवाब बदलते देर नहीं लगेगी। अरे वो तो ड्राइवर होगा। यह खूबी शायद किसी ही किसी और कार के साथ देखने को मिले।
हां, सही बात है अगर किसी और कार से एक आदमी अगले और एक आदमी पिछले गेट से उतरे तो अलग बात है। लेकिन अगर आदमी ही एक हो तो विचार बदलने की यह प्रक्रिया वहां नहीं दोहराई जाती। यह खूबी तो सिर्फ एम्बेसेडर में ही है।
एक दौर था जब हिन्दुस्तान की सड़कों पर इस गाड़ी ने राज किया है। सड़कों पर भीड़ कम हुआ करती थी और यह कार शान से सड़क पर दौडा करती। धीरे धीरे हालात बदलने लगे। छोटे परिवार की छोटी कार के रूप में मारुति ने भारतीय बाजार में दस्तक दी। इसके बाद कहानी बदलने लगी। एम्बेसेडर को सड़कों से किनारे कर दिया जाने लगा। एक वक्त में शानदार कार माने जाने वाली यह कार अब अपने पुराने दिनों की शान शौकत और पहचान की छवि भर नहीं रह गयी। सफेद एम्बेसेडर को देखते ही मन में एक टैक्सी की छवि उभर आती। 'अरे यार ये तो टैक्सी होगी।' इसी के चलते इसके चाहने वाले भी इससे किनारा करने दिखे।
हमारे चाचा के पास भी एम्बेसेडर थी। पड़ोसी कहते, क्यों मल्होत्रा साहब टैक्सी का बिजनेस शुरु किया है क्या। हालांकि यह महज मजाक भर था लेकिन व्यंग्य के इन्हीं बाणो के चलते उन्होने इससे किनारा कर लिया। आज वो नए जमाने की कार लेकर घूमते हैं।
बदलाव की बयार ने इस कार को एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन के बाहर काले पीले रंगों तक सफर तय करा दिया। जहां ये सवारियों को ढ़ोती नजर आने लगी। अब शायद यहां भी इन कारों से मोह भंग होने लगा है। तभी तो नए जमाने की रेडियो टैक्सी में एम्बेसेडर नजर नहीं आती। एयरपोर्ट के टैक्सी स्टैंड में भी कई मॉडल देखे जा सकते हैं।
और तो और, अभी तक एम्बेसेडर में ही सफर करते नेता भी इससे आजिज आ गए दिखते हैं। यह आवाजें उठने लगी हैं कि हमें भी बड़ी वाली कार चाहिए। नयी सुविधांओं वाली। नयी तकनीक वाली। एम्बेसेडर वो तो अब पुरानी हो गयी है।
इस बीच कंपनी ने अपनी इस नयी कार को नए कलेवर और नए फ्लेवर में पेश किया। आगे पीछे के लुक में बदलाव किया। लेकिन, कार की लुक तो बदली नहीं बदला तो लोगों का नजरिया। मेरी नजर में एम्बेसेडर सिर्फ एक कार भर ही नहीं है। यह उस दौर की पहचान है जब हर चीज टिकाऊ होती थी। लोग भरोसेमंद चीजें पसंद किया करते। यूज एंड थ्रो कल्चर चलन में नहीं था। अपनी मजबूती, ताकत और टिकाऊपन के कारण लोग इसे पसंद करते। हां यह वो दौर भी था जब कार बाजार में इतनी मार काट नहीं थी। और न ही था इतना कड़ा मुकाबला। आम लोगों के सपने में भी कार कम ही आती। आज, आज की बात ही निराली है। बाजार के इस कड़े मुकाबले के बीच खुद को बरकरार की दौड़ में बहुत पीछे छूट गयी दिखती है एम्बेसेडर।
मेरी बातें सुन कहीं आप इस मुगालते में तो नहीं कि मैं कंपनी का सेल्स मैन हूं, नहीं जनाब मैं एम्बेसेडर बेचने का काम नहीं करता। लेकिन, इस कार से मुझे बेहद लगाव है। मेरी पहली नौकरी 17 बरस की उम्र में बतौर ट्रांसपोर्ट सुपरवाइजर दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर थी। कंपनी के पास सफेद रंग की चमचमाती 35 एम्बेसेडर थी जिसमें इंडियन एयरलाइंस के क्रू को लाने ले जाने का काम होता। इस कार के फ्लोर से उठते गियर और आगे पीछे से इसकी बॉडी। बस.... कमाल लगती।
खैर, अतीत की इस रानी आज के इस महानगरीय जीवन में खुद को तन्हा महसूस कर रही है। लेकिन मेरे दिल में आज भी यह राज करती है।
हां, सही बात है अगर किसी और कार से एक आदमी अगले और एक आदमी पिछले गेट से उतरे तो अलग बात है। लेकिन अगर आदमी ही एक हो तो विचार बदलने की यह प्रक्रिया वहां नहीं दोहराई जाती। यह खूबी तो सिर्फ एम्बेसेडर में ही है।
एक दौर था जब हिन्दुस्तान की सड़कों पर इस गाड़ी ने राज किया है। सड़कों पर भीड़ कम हुआ करती थी और यह कार शान से सड़क पर दौडा करती। धीरे धीरे हालात बदलने लगे। छोटे परिवार की छोटी कार के रूप में मारुति ने भारतीय बाजार में दस्तक दी। इसके बाद कहानी बदलने लगी। एम्बेसेडर को सड़कों से किनारे कर दिया जाने लगा। एक वक्त में शानदार कार माने जाने वाली यह कार अब अपने पुराने दिनों की शान शौकत और पहचान की छवि भर नहीं रह गयी। सफेद एम्बेसेडर को देखते ही मन में एक टैक्सी की छवि उभर आती। 'अरे यार ये तो टैक्सी होगी।' इसी के चलते इसके चाहने वाले भी इससे किनारा करने दिखे।
हमारे चाचा के पास भी एम्बेसेडर थी। पड़ोसी कहते, क्यों मल्होत्रा साहब टैक्सी का बिजनेस शुरु किया है क्या। हालांकि यह महज मजाक भर था लेकिन व्यंग्य के इन्हीं बाणो के चलते उन्होने इससे किनारा कर लिया। आज वो नए जमाने की कार लेकर घूमते हैं।
बदलाव की बयार ने इस कार को एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन के बाहर काले पीले रंगों तक सफर तय करा दिया। जहां ये सवारियों को ढ़ोती नजर आने लगी। अब शायद यहां भी इन कारों से मोह भंग होने लगा है। तभी तो नए जमाने की रेडियो टैक्सी में एम्बेसेडर नजर नहीं आती। एयरपोर्ट के टैक्सी स्टैंड में भी कई मॉडल देखे जा सकते हैं।
और तो और, अभी तक एम्बेसेडर में ही सफर करते नेता भी इससे आजिज आ गए दिखते हैं। यह आवाजें उठने लगी हैं कि हमें भी बड़ी वाली कार चाहिए। नयी सुविधांओं वाली। नयी तकनीक वाली। एम्बेसेडर वो तो अब पुरानी हो गयी है।
इस बीच कंपनी ने अपनी इस नयी कार को नए कलेवर और नए फ्लेवर में पेश किया। आगे पीछे के लुक में बदलाव किया। लेकिन, कार की लुक तो बदली नहीं बदला तो लोगों का नजरिया। मेरी नजर में एम्बेसेडर सिर्फ एक कार भर ही नहीं है। यह उस दौर की पहचान है जब हर चीज टिकाऊ होती थी। लोग भरोसेमंद चीजें पसंद किया करते। यूज एंड थ्रो कल्चर चलन में नहीं था। अपनी मजबूती, ताकत और टिकाऊपन के कारण लोग इसे पसंद करते। हां यह वो दौर भी था जब कार बाजार में इतनी मार काट नहीं थी। और न ही था इतना कड़ा मुकाबला। आम लोगों के सपने में भी कार कम ही आती। आज, आज की बात ही निराली है। बाजार के इस कड़े मुकाबले के बीच खुद को बरकरार की दौड़ में बहुत पीछे छूट गयी दिखती है एम्बेसेडर।
मेरी बातें सुन कहीं आप इस मुगालते में तो नहीं कि मैं कंपनी का सेल्स मैन हूं, नहीं जनाब मैं एम्बेसेडर बेचने का काम नहीं करता। लेकिन, इस कार से मुझे बेहद लगाव है। मेरी पहली नौकरी 17 बरस की उम्र में बतौर ट्रांसपोर्ट सुपरवाइजर दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर थी। कंपनी के पास सफेद रंग की चमचमाती 35 एम्बेसेडर थी जिसमें इंडियन एयरलाइंस के क्रू को लाने ले जाने का काम होता। इस कार के फ्लोर से उठते गियर और आगे पीछे से इसकी बॉडी। बस.... कमाल लगती।
खैर, अतीत की इस रानी आज के इस महानगरीय जीवन में खुद को तन्हा महसूस कर रही है। लेकिन मेरे दिल में आज भी यह राज करती है।
एम्बेसेडर की बात ही निराली थी. वैसे किस दरवाजे से उतरे वाली बात एकदम सटीक है.
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