आठ फरवरी 2010. चंडीगढ़ की एक अदालत. रुचिका गिरोत्रा मामले में आरोपी हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर कोर्ट से बाहर आ रहे थे। अदालत के बाहर लगा था मीडिया और स्थानीय लोगों का जमावड़ा। अचानक भीड़ में से एक शख्स निकलता है और राठौर पर हमला कर देता है। वह राठौर पर तमाचों की बौछार कर देता है। सभी भौचक रह जाते हैं। अचानक इस तरह से हमला होने की आभास शायद किसी को नहीं होगा। कैमरों की नजर उस शख्स को कैद करने में जुट गई। कुछ देर की गरमागरमी के बाद उस शख़्स पर काबू पा लिया जाता है। लेकिन, वो अपनी इस हरकत से बेपरवाह बिना ग्लानि के खड़ा रहता। जैसे कह रहा हो, मैंने जो करना था कर दिया, अब तुम्हें जो करना है करो। हमलावर की पहचान उत्सव शर्मा के रूप में होती है।
सीन 2
25 जनवरी 2011. गाजियाबाद में सीबीआई की विशेष अदालत। आरुषि तलवार हत्याकांड की दोबारा सीबीआई जांच करवाने के लिए उसके पिता राजेश तलवार अदालत पहुंचे थे। अर्जी देकर तलवार बाहर निकले ही थे कि कंधे पर टंगे कैमरों की भीड़ से एक व्यक्ति निकलकर आता है। बिना वक्त गंवाए एक धारदार हथियार से वो तलवार पर हमला करता है। तलवार के सिर से खून की धारा निकल पड़ती है। कैमरे की आंखें उस शख्स के चेहरे पर जा टिकीं। चेहरा जाना-पहचाना लगा। अरे, यह तो वही है- उत्सव शर्मा।
सीन 2
25 जनवरी 2011. गाजियाबाद में सीबीआई की विशेष अदालत। आरुषि तलवार हत्याकांड की दोबारा सीबीआई जांच करवाने के लिए उसके पिता राजेश तलवार अदालत पहुंचे थे। अर्जी देकर तलवार बाहर निकले ही थे कि कंधे पर टंगे कैमरों की भीड़ से एक व्यक्ति निकलकर आता है। बिना वक्त गंवाए एक धारदार हथियार से वो तलवार पर हमला करता है। तलवार के सिर से खून की धारा निकल पड़ती है। कैमरे की आंखें उस शख्स के चेहरे पर जा टिकीं। चेहरा जाना-पहचाना लगा। अरे, यह तो वही है- उत्सव शर्मा।
ये दोनों घटनाएं अलग-अलग दिन घटीं। शहर भी अलग थे और मामले भी अलग। लेकिन बावजूद दोनों में समानता नजर आयी। दोनों मामले एक ही तार से जुड़ते नजर आए। तार का एक सिरा जहां तलवार मामले से जुड़ा था, वहीं उसके दूसरे कोने पर एसपीएस राठौर पर हुआ हमला था।
गाजियाबाद कोर्ट के बाहर हमले के बाद जब उत्सव को पकड़ा गया, तो वो सिस्टम से बेहद नाराज नजर आ रहा था। उसे गुस्सा था कि आरुषि मामले में सीबीआई अब क्लोजर रिपोर्ट दायर करने जा रही है और आरोपी बाहर घूम रहा है। और शायद उसकी नजर में राजेश तलवार आरोपी नहीं, अपराधी है।
लेकिन इस सबके बीच उत्सव के रवैये पर एक नयी बहस छिड़ गयी है। ऐसे कई लोग हैं जो उत्सव को 'हीरो' बता रहे हैं। उनकी नजर में वो बहादुर है। कोई उसे 'क्रांतिकारी' कह रहा है, तो कोई सामाजिक कार्यकर्ता। किसी की नजर में वो भारत का बूंड्राक सेंट है। अब सवाल यह उठने लगा है कि वास्तव में उत्सव क्या है। वो, जो उसके 'प्रशंसक' उसे बता रहे हैं या फिर वो महज एक मानसिक रोगी भर है। सवाल कई हैं लेकिन, इन सबके बीच उत्सव का बर्ताव भारतीय न्यायिक व्यवस्था की सुस्त चाल और सिस्टम के बीच हो रहे घालमेल पर उंगली जरूर उठाता है। जहां ताकत और धन के बल पर एक ऐसी व्यवस्था तैयार की जाती है, जिसमें कानून में समानता की परिभाषा को हाशिए पर ढकेला जा सके। एक ऐसी सामांनतर व्यवस्था बनाना जिसमें प्रभावशाली व्यक्ति कानूनों की कमजोर कड़ी को अपनी नफे-नुकसान के दम पर मोड़ सके.... इस्तेमाल कर सके। और, इससे जो माहौल तैयार होता है, उसमें आम आदमी खुद को लाचार महसूस करता है। और इसी लाचारगी के माहौल में अगर उत्सव जैसा कोई आगे आकर सत्ता के नियमों को चुनौती देता है, तो उसमें उसे 'नायकत्व' नजर आता है। ठीक उसी तरह जैसे कि 70 के दशक में अमिताभ बच्चन ने सिने पर्दे पर 'एंग्री यंग मैन' की अपनी पहचान बनायी और लोगों ने उसे सिर आंखों पर बिठाया। यह उस समय के सामाजिक बदलाव और समाजिक सोच का ही तो आईना था।
उत्सव की बात कर रहे हैं, तो जिक्र रूपम पाठक का भी आता है। बिहार की रहने वाली रूपम ने अभी कुछ दिन पहले ही भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी का सार्वजनिक रूप से चाकू घोंपकर बेरहमी से कत्ल कर दिया। मौके पर तैनात पुलिस वालों ने रूपम को घटनास्थल पर पकड लिया और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। वहां मौजूद ज्यादातर लोग इस बात को जानते थे कि विधायक पर क्यों हमला किया गया है। और आखिर ऐसा क्या हुआ कि महिला को यह कदम उठाना पड़ा।
जी, आरोप था कि विधायक जी अपने गुर्गों के साथ मिलकर तीन सालों से उसका यौन शोषण करते रहे। तमाम दरवाजों पर खटखटाने के बाद भी उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई। तंग आकर उसने सरेआम विधायक जी को कत्ल कर दिया। सवाल ये आखिर, बार-बार ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं जब सिस्टम से इतर जाकर 'न्याय' हासिल करने की कोशिश की जाती है और, आम आदमी को यही रास्ता सही नजर आता है।
ऐसा नहीं है कि उत्सव एक नाकामयाब इंसान है, जो अपनी नाराजगी इस तरह की हरकतों के जरिये निकाल रहा हो। 30 वर्षीय उत्सव वाराणसी का रहने वाला है और उसने अहमदाबाद के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइनिंग (एनआईडी) से फिल्म प्रोडक्शन की पढ़ाई की है। यानी वह यंग इंडिया की उसी सेना का एक 'हिस्सा' है, जिसकी नुमाइंदगी करने का दम राहुल गांधी भरते हैं। इस बीच सवाल उत्सव की मानसिक स्थिति पर भी उठाया जा रहा है। उसके परिवार वाले उसे बाइपोलर डिस्ऑर्डर नाम की एक मानसिक बीमारी का रोगी बताते हैं। इस बीमारी का शिकार व्यक्ति बहुत ज्यादा अधीर रहता है और जल्द ही अपना मानसिक संतुलन खो देता है।
तो, क्या यह मान लिया जाए कि उत्सव ने यह सब अपनी मानसिक अक्षमता के चलते किया और समाज और समाज के इस पुराने पड़ चुके सिस्टम से उसे कोई परेशानी नहीं थी या यूं कहें कि शायद इसी सिस्टम ने उसकी बीमारी में इजाफा किया।
मगर उत्सव की बातें करने से पहले यह सवाल उठना भी जरूरी है कि क्या उत्सव के इस कृत्य को जायज ठहराया जाना सही होगा। उत्सव के इस काम पर सवाल उठने भी लाजमी हैं। यह सही है कि न्याय प्रक्रिया बेहद धीमी है। अपराधी खुले आम कानून को ठेंगा दिखाकर घूमते हैं। ऐसे में किसी भी स्वस्थ आदमी का दिमाग भी चकरा जाता है। लेकिन, जो उत्सव ने किया क्या उसे सही माना जा सकता है। हालांकि, वह मानसिक रूप से कमजोर है और इसलिए उसके किए गए कृत्य पर सबकी अपनी प्रतिक्रिया हो सकती है। लेकिन, इन सबके बावजूद किसी भी सभ्य समाज में कानून की धीमी रफ्तार के आधार पर हम कानून को अपने हाथ में लेने की बात को सही नहीं माना जाएगा। इस आधार पर तो हर अपराधी के पास स्वयं को पाकसाफ बताएगा। लोकतांत्रिक प्रणाली में हर कोई नियमों के अंर्तगत बंधा होता है। अगर सब लोग इसी तरह फैसला ऑन द स्पॉट करने लगे, तो यह व्यवस्था ढ़ह जाएगी। दरअसल, ये तो सामाजिक और न्यायिक तानाबाना है इसे कई तरह से बुना जाता है. और, इसकी बुनावट इतनी जटिल है कि इसके सिरे तलाश पाना भी आसान नहीं। कोई एक ही व्यक्ति एक ही समय में हीरो और विलेन दोनों हो सकता है। यह देखने वाले के नजरिए पर निर्भर करता है।
लेकिन, उत्सव को जिस तरह का समर्थन मिल रहा है, वो साफ इशारा कर रहा है कि युवा वर्ग में आक्रोश है। वे इस गलघोंटू कमरे में बंद व्यवस्था के बीच खिड़की चाहते हैं। एक ऐसा झरोखा जहां से समानता की बातें न केवल सुनीं जा सकें, बल्कि दिखायी भी दें और महसूस भी हों। वरना, कोई और 'उत्सव' शर्मा नहीं होगा, इससे बात की गारंटी नहीं दी जा सकती। मैं आपको डरा नहीं रहा ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें