चीन को अपनी 'ग्रेट वॉल ऑफ चाइना' पर नाज है, तो भारत को अपनी 'द वॉल' पर. उस दीवार ने चीन को कई बाहरी हमलावरों से बचाया, तो हमारी इस दीवार ने भी कई बार देश का मान रखा. वो दीवार हजारों सालों से खड़ी है... अडिग और सम्मान के साथ. तो हमारी यह दीवार भी बीते डेढ़ दशक से हर वार को झेल रही है. जी, बात हो रही टीम इंडिया के राहुल शरद द्रविड़ की. क्रिकेट जगत में वो नाम जो अपनी कलात्मकता, सहजता और जीवटता के लिए जाना जाता रहा है. भरोसे का दूसरा नाम राहुल द्रविड़.
वो 1996 की एक दोपहर थी. क्रिकेट का मक्का कहे जाने वाला लॉर्डस का मैदान. करीब 23 साल का एक युवा हाथ में बल्ला थामे मैदान पर उतरता है और बस छोड़ देता है अपनी छाप. उसके बल्ले से निकला हर शॉट, गेंद के पीछे आकर खेलने की उसकी कला क्रिकेट की उस कलात्कता और सौंदर्य को जीवंत कर देती है, जिसके लिए यह भद्रजनों का खेल जाना जाता रहा है. अपनी पहली ही पारी में 95 रनों की शानदार पारी. लेकिन, एक मलाल भी. मलाल, शतक से चूकने का. मलाल... इतिहास में दर्ज न हो पाने का. हालांकि, इसी पारी में सामने वाले छोर पर अपना पहला ही मैच खेल रहे सौरव गांगुली शतक जड़ते हैं. द्रविड़ उनके लिए खुश हैं, लेकिन, खुद वो न कर पाने की वजह से निराश भी. शुरू से ऐसे ही हैं द्रविड़. और आज भी कुछ नहीं बदला. हर काम में परफेक्शन की न सिर्फ चाह, बल्कि उसके लिए अपनी पूरी क्षमता झोंक देने का जज़्बा भी. टीम की जरूरत के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार. जरूरत पड़ी तो पारी की शुरुआत भी की और अगर उसी जरूरत ने नंबर सात पर बल्लेबाजी करने को कहा, तो उसके लिए भी पूरी तरह से तत्पर रहे. टीम को दरकार हुई तो विकेट के पीछे दस्ताने पहनकर भी खड़े होने में मिस्टर परफेक्शनिस्ट को कोई गुरेज नहीं रहा. सही मायनों में एक टीम मैन हैं द्रविड़.लक्ष्य उन्हें मछली की आंख की तरह नजर आता है... वो है...जीत. और उस लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व देने का माद्दा और जोश भी है द्रविड़ में.
द्रविड़ क्रिकेट की किताब को जीते नजर आते हैं. हर चीज परफेक्ट. फिर चाहे वो गेंद की पिच तक जाकर कवर ड्राइव खेलना हो या फिर कलाई के सहारे गेंद को ऑन साइड में मोड़ना. उनका हर शॉट, हर अंदाज क्रिकेट की किताब से निकला लगता है. बेहद सजीव और परफेक्ट. लेकिन, साथ ही उसमें नजर आती है अपनी स्वयं की मौलिकता. वे क्रिकेट की शास्त्रीयता को जीते हैं. उस रंग में सराबोर हैं द्रविड़, जिसके लिए क्रिकेट जाना जाता रहा है.किसी शास्त्रीय गायक या नृतक की तरह वे भी हर भाव-भंगिमा और कदम का पूरा हिसाब रखते हैं. सिर्फ रन बनाना ही उनकी कोशिश नहीं होती, उनकी कोशिश होती है कि रन सही अंदाज में भी बनें. शायद परफेक्शन की यह चाह बचपन से उनकी आदत में शुमार है. उनके कोच अन्य लड़कों को राहुल से सीख लेने को कहते. राहुल अपने नए तो नए बल्कि पुराने और मैले कपड़ों को भी अच्छे से तह करके लगाते. समय से मैदान में पहुंचना और जमकर मेहनत करना उनका नियम था. यही मेहनत करने का जज्बा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में भी नजर आता रहा है. मैदान पर द्रविड़ को बल्लेबाजी करते अंदाजा लग जाता है क्रिकेट आसान खेल नहीं है.
खैर, किसी भी करियर में उतार-चढ़ाव लाजमी है. यह दौर द्रविड़ के करियर में भी आया. अपनी बल्लेबाजी पर ध्यान देने के लिए उन्होंने कप्तानी छोड़ दी. अखबारों में 'दीवार में दरार' और 'ढह गई दीवार' जैसे हैडिंग इस शानदार करियर की विदाई के संकेत देने लगे. राहुल द्रविड़ का अभेद्य माने जाने वाला डिफेंस भी कारगर साबित नहीं हो रहा था. मैदान से बाहर जाते समय द्रविड़ के चेहरे पर उदासी के भावों वाली तस्वीरें आम हो चली थीं. प्रशंसकों का भरोसा टूटने लगा था. लेकिन, एक भरोसा कायम था. द्रविड़ का खुद पर. भरोसा.. अपनी क्षमताओं पर. भरोसा.. अपनी तकनीक पर. भरोसा... कुछ कर गुजरने का. संयम उनके बचपन का साथी है और उन्होंने इस मुश्किल हालात में भी उसका साथ नहीं छोड़ा. द्रविड़ जानते थे कि बीते इतने सालों से वे इसी अंदाज में रन बनाते आए हैं. और जब अब तक बनते आए हैं, तो आगे भी बनेंगे ही. जरूरत है तो, बस... बस एक अच्छी पारी की और उसके बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा. वो दौर गुजर गया. द्रविड़ एक बार फिर उठ खड़े हुए. इस बार पहले से ज्यादा मजबूती के साथ. पहले से ज्यादा भरोसे और विश्वास के साथ.
वनडे से उनकी विदाई के बाद भी वे आईपीएल खेलते नजर आए. यह खेल उनके अंदाज से जुदा था. यह जरूरते जुदा थीं. माहौल जुदा था और हालात जुदा थे. यहां द्रविड़ के 'बचपन का साथी' संयम की दरकार कम थी. लेकिन, द्रविड़ ने यहां भी अपने लिए जगह बनाई. और दिखा दिया कि वे इस नए फॉरमेट के लिए भी फिट हैं. यह बात की तस्दीक थी कि अगर बुनियाद मजबूत हो, तो फिर किसी भी हाल में खुद को ढ़ाला जा सकता है. लेकिन, अपनी मौलिकता को उन्होंने यहां भी नहीं खोया.
कैरिबीयाई धरती पर टेस्ट सीरीज खेलने गई टीम इंडिया मोटे तौर पर नई है.न तेंदुलकर हैं, न सहवाग और न गंभीर. ऐसे में कहा जाए तो इस टीम में कोहली, रैना और मुरली विजय जैसे वो खिलाड़ी हैं, जो भारतीय त्रिमूर्ति (सचिन, द्रविड़, लक्ष्मण) की जगह लेंगे. इन खिलाडि़यों के लिए यह सबक है. सबक खुद को टेस्ट क्रिकेट से सही मायनों में रूबरू कराने का. उन बातों से परिचित होने का जिसने एक आम मध्यमवर्गीय महाराष्ट्रीय लड़के को टीम इंडिया के सबसे भरोसेमंद बल्लेबाज तक का सफर तय कराया.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें