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गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

वो 'ताज' का पहला दीदार

मुंबई को पहली बार देखते हुए जो पहला ख्‍याल मन में आया वो सपनों के इस शहर में इन मलीन बस्तियों में रहने वालों के भी कुछ सपने होते होंगे. सपने... जो खुदा जाने कि वो कभी पूरे होंगे भी या नहीं. 22 नवंबर की सुबह करीब सात बजे रेल के दरवाजे से पहली बार सपनों के इस शहर को देखा. यहां भी नजारा लगभग वही था जो किसी भी आम शहर में रेल की पटरियों किनारे होता है. स्‍लम बस्‍ितयां और इसमें बद्तर जिंदगी जीते लोग.

मुंबई कितनी तेज भागती है इसका अहसास भी मुझे जल्‍द ही हो गया. तेज भागती लोकल और उसे पकड़ने के लिए उससे भी तेज भागते लोग. मुंबई की रफ्तार के लिए लोकल कितनी अहम है इसका अंदाजा मुझे हो चला था. सुबह नौ बजते-बजते दोनों बढ़ गए थे, रेल की रफ्तार और लोगों की तादाद भी. चलती ट्रेन से उतरने की जल्‍दी और भागती ट्रेन को लपकने के अभ्‍यस्‍त हाथ. सब कुछ बिना किसी रुकावट के चलता रहा.

लेकिन अपने इस एक दिनी प्रवास के दौरान मैंने समुद्र किनारे शान से खड़े होटल ताज को देखते ही लम्‍हा जैसे थम गया. इसकी पहली झलक ने मुझे तीन साल पहले इसके सीने पर उभरे घावों की तस्‍वीरों की याद दिला दी. वो 26 नवंबर 2008 की रात थी, जब एक मायने में भारतीय गौरव के प्रतीक इस होटल पर आतंकी हमला हुआ. नापाक इरादों के साथ जब चंद हथियार बंद इस होटल में घुसे, तो न सिर्फ मुंबई बल्कि पूरा देश सकते में था.

मोटरबोट में बैठे दूर से ताज को निहारते हुए याद आया कि इसी रास्‍ते से आए थे देश पर सबसे बड़ा आतंकी हमला करने वाले. यहीं गेट वे ऑफ इंडिया के सामने उतरे होंगे वे अपने बोट से. और फिर यहीं से पूरे शहर से आतंक फैलाने का मकसद लिए शहर में फैल गए होंगे. यहीं से शुरुआत हुई थी शहर के सीने पर ऐसे जख्‍म देने की जिन्‍हें भरने में अभी काफी वक्‍त लगेगा.

टीवी पर जब पहली बार इसकी खबर फ्लैश हुई तब इसके भयानक रूप का अंदाजा शायद ही किसी को रहा हो. लेकिन, खबर ज्‍यों-ज्‍यों घटनाक्रम की तफसील बयां करने लगीं, तो हैरानी हुई कि कैसे उंगलियों पर गिने जा सकने वाले लोगों ने इस महानगर को बंधक बनाकर रख लिया. जूनून अगर सही राह पर हो तो यह आदमी को बेहतर इंसान बनाता है, लेकिन जब यह गलत हाथों में पड़कर गलत राह पर चलता है, तो इंसान और हैवान में कोई फर्क नजर नहीं आता. ऐसी ही तस्‍वीर उस वक्‍त नजर आ रही थीं. होटल ताज से उठता धुआं और रह-रहकर होते धमाके. और, इन सबके मायने बयां करते एक्‍सपर्ट. सब कुछ अच्‍छी तरह से याद है अब तक.

अगले साठ घंटे तक देश और दुनिया की सारी खबरें बौनी हो गईं और हर कैमरे का रुख मुंबई की ओर हो गया. टीवी पर इस घटना की कवरेज देखते हुए मन में एक अजीब सा गुस्‍सा था. आखिर कैसे कोई इतना घृणित काम कर सकता है. बेगुनाहों की जान लेना, वो भी मजहब के नाम पर किसी भी तरह जायज नहीं. कभी नरीमन प्‍वाइंट पर हमले की खबर, तो कभी कामा अस्‍पताल. कभी ताज होटल तो कभी छत्रपति शिवाजी टर्मिनल. हर जगह से बस मौत और मौत की खबरें आ रही थीं. हर घंटे इसमें इजाफा होता. पूरा देश सासें थामकर इस आतंकी घटनाक्रम के खत्‍म होने का इंतजार कर रहा था. हर दुआ में बेकसूर लोगों की सलामती के लिए दुआएं मांगी जा रही थीं.

मुंबई में गेटवे ऑफ इंडिया पहुंचने से पहले मैंने छत्रपति शिवाजी टर्मिनल को देखा. देश के व्‍यस्‍तम रेलवे स्‍टेशनों में से एक. लाजवाब वास्‍तुकला और बेशुमार भीड़. यही वो जगह थी जहां आतंकियों ने सबसे ज्‍यादा बेगुनाहों की जानें ली. यही वो स्‍टेशन था जहां अजमल आमिर कसाब हाथों में बंदूक लिए बेगुनाहों को भूनने में लगा था.

खबरिया चैनल इस पूरे घटनाक्रम की लाइव तस्‍वीरे दिखाने में मशगूल रहे. हालांकि, उसकी बाद में बहुत आलोचना भी हुई कि आतंकियों को इससे मदद मिली. इस घटना ने मीडिया के रुख और उसकी जवाबदेही तय करने में भी महती भूमिका निभायी. एक बात यह भी सामने आई कि क्‍या दिखाया जाए से जरूरी यह जानना है कि क्‍या नहीं दिखाया जाए. यह सब कुछ मेरी मस्तिष्‍क के पटल पर किसी चित्रपट सा चल रहा था. तभी अचानक दोस्‍त की आवाज से मेरी तंगनिद्रा टूटी. ताज अब भी मेरे सामने था. वैसा जैसा 26 नवंबर 2008 से पहले रहा होगा. उसे बाहर से देखने के लिए भी लोग कतारबद्ध खड़े थे.

खैर, मैं कई कारणों से हादसों की सालगिरह मनाने में यकीन नहीं रखता. मेरी निजी राय है कि ऐसा हम महज औपचारिकताएं पूरी करने के लिए करते हैं. हादसों से सीख ली जानी चाहिए ताकि ऐसे हादसे दोबारा न हों.

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