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गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

बोलती खामोशी...

सर्दी की उस सुबह वो उसे खिली धूप सी नजर आई. उस चार्टेज बस के दरवाजे पर वो सहमी सी खड़ी थी. काले रंग के स्‍वेटर में उसका गेहुंआ रंग और निखर आया था. सिर पर सर्दी से बचने के लिए सफेद टोपी और कंधे पर बिखरे लंबे बाल. लेकिन, जिस चीज पर उसकी नजरें जा टिकी थीं, वो थी उसके माथे की बिंदी. छोटी सी काले रंग की बिंदिया किसी बादशाह के ताज में लगे किसी कीमत पत्‍थर की तरह थी. चाहकर भी वो उसके चेहरे से नजर नहीं हटा पाया. रह-रहकर उसकी निगाह टिक जाती उसके माथे पर‍ लगी उस छोटी सी बिंदी पर. लड़की को देखकर उसके जेहन में कई खूबसूरत विचार अंगड़ाई लेने लगे. अपने चेहरे पर हल्‍की मुस्‍कान लिए वो उसे देखने लगा. जैसा अक्‍सर अच्‍छे-मुस्‍कुराते चेहरों को देखकर होता है, उसके भीतर भी सकारात्‍मक ऊर्जा दौड़ने लगी. अचानक कंडेक्‍टर ने लड़की से किराया मांगा तो वो चौंक उठा. ऐसा होगा इसकी उम्‍मीद तो उसे कतई न थी. वो लड़की बोल नहीं सकती थी. वो चकरा गया. सड़क के शोर में भी उसके कान सुन्‍न हो गए. आखिर ऐसा कैसे हो सकता है... ऊपर वाला ऐसा निर्दयी नहीं हो सकता... वो दुखी था... बेहद दुखी... हालांकि, वो लड़की उसकी परिचित न थी, उसने उसे पहली बार ही देखा था और कौन जाने आखिरी बार भी. लेकिन दस मिनट के उस बस के सफर में उससे बन गया था एक अंजाना सा रिश्‍ता. रिश्‍ता जो किसी पहचान का मोहताज नहीं. रिश्‍ता जो यूं ही अचानक बन जाता है. वो अब भी उस लड़की को देख रहा था. उसकी बोलती आंखों की ओर, उस खामोश जुबां की ओर. लेकिन, बदल चुके थे उसके मनोभाव. वो लड़की उसे देखकर मुस्‍कुरा रही थी.

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