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शनिवार, 30 नवंबर 2013

बेटा ज़रा संभल के... ओ बाबू ज़रा संभल के

आने वाले हैं चुनाव
नेता चलेंगे अपने दांव
बेटा ज़रा संभल के, ओ बाबू ज़रा संभल के।

वादों और इरादों का अब खुलेगा ताला
सड़कें बनेंगी तेरा यहां पे और खुदेगा नाला।
ये तो बड़ा पुराना दांव, कहीं फिसल न जाएं पांव
बेटा ज़रा संभल के, ओ बाबू ज़रा संभल के।

खद्दर का कुर्ता अब होगा और गांधी की टोपी
हाथ जोड़कर द्वारे तेरे आएंगे पहन के धोती
करेंगे ये गुणगान, तेरे काट लें कहीं कान
बेटा ज़रा संभल के, ओ बाबू ज़रा संभल के।

चालू और कालू दोनों हाथ मिलाते जाएं।
कल तो गरियाते थे, अब साथ में खाना खाएं।
सियासत का यह रंग, बदलें हैं सबके अब ढंग।
बेटा ज़रा संभल के, ओ बाबू ज़रा संभल के।

मजहब और जाति की याद दिलाने आएं।
ताऊ-चाचा बोल के पैरों हाथ लगाएं।
चाल इनकी और चरित्र, दोनों हैं बड़े विचित्र
बेटा जरा संभल के, ओ बाबू जरा संभल के

24 घंटे बत्ती जलेगी, नलों में बहेगा पानी।
स्‍कूल को जाएगी अब हरेक बिटिया रानी।
ऐसा दिखाएंगे स्‍वप्‍न, कहानी कभी न होगी ख़त्‍म।
बेटा ज़रा संभल के, ओ बाबू ज़रा संभल के।

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