उसके पैरों में जूते नहीं थे
जूते क्या कोई फटी चप्पल भी नहीं
तन पर थे कुछ फटे पुराने कपड़े
आंखों में उम्मीद की किरण लिए
वो हर राहगीर को निहार रहा था
एक आस था दामन थामे हाथ आगे बढ़ाता
फैलाकर अपनी हथेली को सोचता शायद इस पर
कोई भार रख दे,
हर गुजरने वाला उस हाथ को नजरअंदाज करता
किसी के मन में कोई भाव नहीं आता
बस तिरछी आंखें कर देख भर लेता
गर कोई देखता भी तो बस छि छि... कर देता
और वो बदलते भारत की तस्वीर
एक बार फिर अपने क्रम को दोहराने लगता
वो बैठा था एक बड़े से बोर्ड से साए में
जिस पर लिखा था ‘यूं हो रहा है, भारत निर्माण’
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009
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सही कहा मित्र यही है भारत का असली निर्माण
जवाब देंहटाएंवह सड़क पर गिरा था
जवाब देंहटाएंऔर भूख से मरा था,
कपड़ा उठा के देखा
तो पेट पर लिखा था-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।।।
बहुत सुन्दर भाव हैं।बढिया रचना है।बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा है। एक कोरी कल्पना नहीं है बल्कि हकीकत को सपने में बाधनें का अच्छा प्रयास किया है। साथ ही जो कटाक्ष इसमें हुआ है वह वास्तव में ही काबिले तारीफ है। बहुत सुंदर है।
जवाब देंहटाएंbahut hi achha likha he aapne. bhavo kogathne ki shakti wakai apki kalam me he
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