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शनिवार, 21 मार्च 2009

अब और कार्बन छाप नहीं...

कभी कभी सोचता हूं जिंदगी बिल्‍कुल कार्बन छाप हो गई है। कभी कभी क्‍या आमतौर पर ऐसा अहसास होता है। कार्बन छाप लाइफ... बोले तो, जैसे कागज के नीचे कार्बन लगाकर जो लिखा जाए नीचे वाले पन्‍ने पर वही लिखा आ जाता है। वैसे ही सोमवार से शनिवार तक वही एक जैसी दिनचर्या। वो ठीक उसी समय आंख खुल जाना। उसी समय नहाना, धोना और ठीक उसी समय घर से‍ निकलना। या‍नी सभी कुछ ठीक उसी तरह होना जैसे मैं, मैं न होकर एक मशीन हूं, जिसे हर काम नियत समय पर करने के लिए सेट किया गया है। उसकी कोई चाहत नहीं बस घड़ी की सुईयों की टिक टिक के हिसाब से वो हर काम करती रहती है। इसी बीच तैयार होकर रोज के ही समय पर बस स्टॉप पर पहुंचना। सब कुछ रोज की तरह...। बस में भी वही धकम्‍मपेल, वही चिक-चिक पौं-पौं, वही कंडक्‍टर, वही ड्राइवर, वही सवारियां और वही पुरानी टांग खिचाई। वही पुराने जोक्‍स ...। और वही रोज की तरह देश के नेताओं को कोसते लोग। कुछ भी नहीं बदलता। ना लोग और न ही दिन, सच कहूं तो मैं भी नहीं। कुछ भी नया और रोमांचक नहीं। सब कुछ रोज की ही तरह...।

ऑफिस में वही कुर्सी और पड़ोस में बैठे वही गुप्‍ता जी मुंह में गुटखा दबाए अपनी वही पुरानी कहानियां सुनाते हुए। उसके बाद बॉस का वही पुराना राग, वही पुरानी डांट और हमारी रोज की तरह उस बात को नजरअंदाज कर देना। कुछ भी तो नहीं बदलता। तभी तो सोचता हूं कि लाइफ कॉर्बन छाप बन गई है। बस एक दिन लिख दो और पूरा हफ्ता उसी को जीते जाओ। हफ्ते में रविवार उसी तरह आता है जैसे फोटोकॉपी की मशीन में कागज खत्‍म होने के बाद एक मिनट तक मशीन रोक, उसमें दोबारा कागज भरे जाते हैं और उसके बाद वो दोबारा शुरु हो जाती है। बस इत्‍ता भर ही रहता है... संडे का खुमार। उसके बाद अगले दिन से फिर वही रोजमर्रा की दिनचर्या शुरु, जिसकी शुरुआत एक रात पहले से ही कर ली जाती है... अरे, सोना नहीं सुबह ऑफिस जाना है। इसके बाद सभी काम अपने आप अपेनी प्राथमिकता और उपयोगिता खो देते हैं, उसके बाद सिर्फ अगले दिन की चिंता सताने लगती है। आम आदमी की जिंदगी की यही कहानी बन गई है।

ले‍किन, बस बहुत हो गया... अब यह और नहीं चलेगा। यह बात कई बार दिल में उठी लेकिन, इसमें कुछ नया नहीं। लेकिन, इस बार इरादा पक्‍का है, जीने का वही पुराना ढर्रा नहीं चलेगा। या तो काम बदला जाएगा या फिर काम करने का तरीका... कोई तो ताजा हवा चाहिए ही। बहुत दिन हो गए, खुली हवा में सांस लिए। एक अर्सा बीत गया खुद से मुलाकात किए हुए। अपनी ही पहचान कहीं गुम सी हो गई लगती है। तो, अब कुछ नया करने की इच्‍छा हर बीतते दिन के साथ और बलवती होने लगी है। वही रटे रटाए तोते की तरह काम नहीं चलेगा। अब मेरी जिंदगी कार्बन छाप नहीं रहेगी। अब मेरी जिंदगी का हर दिन एक कोरा कागज होगा जिस पर मैं खुद अपनी मर्जी से कुछ नया लिखूंगा। नया और कुछ मौलिक। बस अब और कार्बन छाप नहीं...।

भारत मल्होत्रा

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