अभी कुछ दिन पहले उसे देखा,
हंसता, खिलखिलाता, बेपरवाह सा चेहरा,
देख कर अनदेखा कर मैं आगे बढ़ने लगा,
उसने नाम लेकर मेरा मुझे पुकारा, और कहा
किधर जा रहे हो ‘भानू’ पहचाना नहीं मुझे।
उसकी आवाज में जानी पहचानी सी लगी,
पास जाकर देखा तो शक्ल में भी अपनापन सा लगा।
कौन हो तुम, मैने उस 'अपने से ' अजनबी से पूछा,
अरे! तुम मुझे नहीं जानते, मैं तुम ही तो हूं
ध्यान से देखा उस चेहरे को,
सही मैं वो मैं ही था
मैं, जो खुद से कहीं बिछुड़ गया था।
खो गया था इस दुनिया की भीड़ में कहीं,
खुद से बिछुड़ने के बाद मैं तन्हा सा रहता था
खोया-खोया और उदासी के साए से घिरा,
दोस्तों के बीच में अपने वजूद को तलाशता
उस दिन से मैने खुद से फिर से दोस्ती कर ली
और जब हाथ मिलाया है खुद से
मुझसे दूर हैं सब तन्हाईयां, रुसवाईयां
और गम की परछाईयां,
बस, खुद से पहचान जरूरी है इंसान के लिए
फिर सब लोग खुद-ब-खुद पहचानने लगते हैं।
एक बार खुद से दोस्ती करनी जरूरी है,
फिर, उसके बाद लोग खुद-ब-खुद दोस्त बन जाते हैं।
भारत मल्होत्रा
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