यह तहजीब भी अजीब सी लगती है,
रकीब की शक्ल भी हबीब सी लगती है। *
आईना भी गफ़लत में डालता है हमें,
अपना अक्स भी उनकी तस्वीर सी लगती है।
इस दुनिया का दस्तूर भी निराला है,
प्यादे की औकात भी वजीर सी लगती है।
जिंदगी से मैं परेशान तो नहीं,
सांसे मगर जंजीर सी लगती हैं।
बस, इक पल में सीने में उतर जाती हैं,
तेरी आंखें भी किसी तीर सी लगती हैं।
किस-किस की बात को हवा में उड़ाएं ‘भानू’
यहां तो दोस्तों की बातें भी शमशीर सी लगती हैं।
* यह शे'र मेरे मित्र राजीव रंजन का है जिसे आधार बनाकर यह पूरी रचना की गई है।
भारत मल्होत्रा
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vah dost khub likhte ho
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