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सोमवार, 7 सितंबर 2009

... हम तो चाहत के गम उठाए जीते हैं

हम तो चाहत के गम उठाए जीते हैं,
आंसू जुदाई के दिन रात पीते हैं।
दुनिया में हमारा कोई नहीं हैं अपना,
आंखों में मेरी कोई न कोई है सपना।
बस उम्‍मीद के दीए जलाए जीते हैं,
हम तो चाहत के गम उठाए जीते हैं।

इश्‍क में न हार और न जीत का अहसास होता है,
महबूब का दिया हर जख्‍म भी खास होता है।
दूरियों की मोहताज मोहब्‍बत नहीं होती,
जुदाई में जो मिट जाए वो चाहत नहीं होती।
हम उनकी याद सीने में बसाए जीते हैं,
हम तो चाहत के गम उठाए जीते हैं।

बंदगी बस उसी की करते हैं हम,
मेरा ख़ुदा ही है मेरा सनम।
चाहकर भी उन्‍हें भुला न पाएंगे,
मरकर भी वो हमें याद आएंगे।
उनकी याद के लम्‍हें दिल में पलते हैं,
हम तो चाहत के गम उठाकर जीते हैं।

हमें छोड़कर जाना उनकी रजा सही,
मोहब्‍बत के बदले हमारी यह सजा सही।
एक दिन तो उन्‍हें हमारी मोहब्‍बत का अहसास होगा,
जब कोई अपना न दिल के पास होगा।
उस दिन की आस लिए जीते हैं,
हम तो चाहत के गम उठाकर जीते हैं।

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