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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

अनकही

शाम कुछ बोझिल सी है
सुबह थकी-थकी उदास है
दरिया के करीब हूँ
फिर भी बुझती नहीं प्‍यास है

अब रोने पर आंख में आंसू नहीं आते
ग़म इस कदर अपने हैं कि मुझसे दूर नहीं जाते
चाहकर भी हम उन्‍हें भुला नहीं पाते
हम भूले से भी उन्‍हें याद नहीं आते

बात कहने को कई हैं, पर बात कही जाए कैसे
बर्बाद हमें मुक़दर ने किया, उन्‍हें दोषी ठहराएं कैसे
लाख बेवफा कहे उन्‍हें दुनिया
पर हम अपने दिल को समझाएं कैसे

गुजरता वक्‍त बताता है हमें
एक अहम बात सिखाता है हमें
मांगकर 'दया' मिलती है, मोहब्‍बत नहीं मिलती
कल की छोड़, आगे की सोच, समझाता है हमें

भारत मल्‍होत्रा

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