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रविवार, 29 नवंबर 2009

... बस रहने दो

तुम मेरे साथ नहीं, तो कोई गम नहीं
मेरे पास अपना अहसास रहने दो

हम गुजार लेंगे जिंदगी तुम्हारे बिना
तुम खुश रहो, हमें उदास रहने दो

इक बार गले लग जाओ जाने से पहले
एक लम्हा... मेरी जिंदगी का खास रहने दो

रोशन रहने दो चौखट के दीए
तुम्‍हारे आने की इक आस तो रहने दो

बस बहुत हुआ, जुबां कह चुकी जो कहना था
अब नजरों को अपनी बात कहने दो

लंबा सफर है जिंदगी का, तन्‍हा थक जाओगे
मेरी बात मानो, किसी हमसफर को साथ रहने दो

ये माना कि हम अब गैर हैं तुम्‍हारे लिए
अपने दिल में हमारी याद तो रहने दो

भारत मल्‍होत्रा

3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन लिखा है दोस्त। याचना है और गैर समझने वाले के लिए अपनापन शब्दों से उबल उबल कर बाहर आ रहा है।

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  2. हुजूर !
    अगर भाव उठ जाएँ तो कहने
    की शैली को भी मांजने की जरूरत
    पड़ती है ...ऐसा हो तो बात और बनती है ...
    कमी न हो तो बात और सुन्दर बने ......

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  3. अमरेंद्र जी आपने अपना बहुमूल्‍य समय निकालकर टि‍प्‍पणी दी आपका धन्‍यवाद। आपके इस परामर्श को मानते हुए बात को और सुन्‍दर बनाने का प्रयास जारी रहेगा।

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