न जाने क्यों आज मन रुआंसा सा है
रोने को दिल तो चाह रहा है
पर आसूं हैं कि आंख से नीचे ही नहीं उतर रहे
बहुत कसैला हो गया है मन
जैसे नीम की पत्तियां चबाई हों या
खाया हो कच्चा करेला मैने
बहुत घुटन हो रही है आज
जैसे कि तंग में कमरे में बंद हो गया हूं
बिना रोशनदान और खिड़की
कोई दरवाजा भी नहीं है जहां
जहां सूरज की रोशनी भी नहीं पहुंच सकती है मुझ तक
लगता है जैसे डूब रहा हूं गहरे सागर में
और बांध दिये हैं किसी ने मेरे हाथ-पांव
मैं डूबता ही जा रहा हूं
कोई राह नहीं सूझती मुझे बचने की
न जाने क्यों आज मन में केवल निराशा आ रही है
पर मैं सोने जा रहा हूं इस उम्मीद के साथ
कि कल का सूरज आशा की एक नयी किरण लेकर आयेगा
और फिर यह उदासी का अंधेरा छंट जायेगा
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निराशा भरी पूरी कविता में आपने आखिर में उम्मीद की किरण का जिक्र किया, अच्छा लगा। लेकिन समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर आप इस अंधेरे से कब से दिल लगाए बैठे हैं?
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