एक्सप्रेस गाडि़यां छोटे स्टेशनों पर नहीं रुकतीं. वहां से गुजरते हुए आपने उन्हें अक्सर धूल उड़ाते देखा होगा. वहां खड़े लोग उस एक आस भरी निगाह से उस गाड़ी को देखते भर रहते हैं. विकास भी कुछ इसी तरह हैं. जहां आम आदमी उस गाड़ी को दूर से देखता तो जरूर है, उसके बारे में सुनता भी है, उसकी बात भी कभी-कभार कर लेता है, लेकिन उस गाड़ी में बैठने का मौका या यूं कहें कुव्वत अभी तक वो हासिल नहीं कर पाया है.
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में बीते दिनों एक हादसे ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा. बरेली से लखनऊ जा रही हिमगिरी एक्सप्रेस की छत पर यात्रा कर रहे नौजवान काठ के एक पुल से टकरा गए, जिसमें कम से कम 20 नौजवान मारे गए और दर्जनों घायल हुए. पहली नजर में इस दुर्घटना के लिए छत पर सफर कर रहे यात्रियों को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. आखिर उन्हें छत पर बैठकर जाने की जरूरत ही क्या थी. लेकिन, सवाल सिर्फ एक घटना का ही नहीं है. गौर से देखने पर इस तस्वीर के कई कोणों से आप रूबरू हो सकते हैं. इसके बाद गुस्साये नौजवानों ने रेल के एसी कोच को आग के हवाले कर दिया.
दुर्घटना में अपनी जान गंवाने वाले और घायल होने वाले सभी नौजवान थे. ये लोग बरेली में भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) की परीक्षा प्रक्रिया से लौट रहे थे. वहां उम्मीदवारों का दबाव इतना ज्यादा था कि सुबह छह बजे तक रजिस्ट्रेशन शुरू नहीं हुआ, तो परीक्षा रद्द होने की अफवाह उड़ी. इसके बाद छात्र भड़क उठे. घर से दूर एक नौकरी की आस में आए छात्रों ने शहर में जमकर उत्पात मचाया. इनसे निपटने के लिए आईटीबीपी के जवानों ने लाठीचार्ज कर दिया. बेकाबू हालात दोबारा रजिस्ट्रेशन शुरू होने के बाद भी काबू नहीं पाया जा सका. इसके बाद रजिस्ट्रेशन को रद्द ही कर दिया गया. यह होते ही युवा उपद्रवी बन गए. शहर में उन्होंने बसें जलायीं और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया. पुलिस बल के दम पर इन जवानों को शहर से बाहर खदेड़ा गया.
हादसे के बाद सरकारों ने वही किया जो वो करती रही हैं. यानी जिम्मेदारी एक दूसरे पर डालना. रेलवे ने फौरन इस हादसे से पल्ला झाड़ा और यूपी प्रशासन ने भी मामले की जिम्मेदारी आईटीबीपी पर डालने में देर नहीं की. तो, दूसरी ओर चिदंबरम ने गेंद यूपी प्रशासन के पाले में यह कहते हुए डाल दी कि हमने तो इस परीक्षा की जानकारी प्रशासन को दे दी थी, इसके बाद व्यवस्था का जिम्मा उनका था. यानी कोई भी इस मामले की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था. रेलवे के पास इस बात का जवाब नहीं कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में लोग ट्रेन की छत पर सवार क्यों होने दिए गए. उन्हें उतारने की कोशिश क्यों नहीं की. क्या रेलवे नहीं जानता था कि इस तरह यात्रा करना न केवल गैरकानूनी है, बल्कि खतरनाक भी है. प्रशासन यह बताने को तैयार नहीं कि आखिर पहले से जानकारी होने के बाद भी व्यवस्था को चुस्त क्यों नहीं किया गया. वहीं, दूसरी ओर केंद्र सरकार के पास इस बात का जवाब नहीं कि क्यों महज एक नौकरी के लिए लोग अपनी जान का जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं.
416 भर्तियों के 11 राज्यों से 2 लाख उम्मीदवार. एक सीट के लिए 500 दावेदारियां. यह भारत निर्माण की तस्वीर है. जहां नाई, ट्रेकमैन और इसी तरह की चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिए भीड़ टूट पड़ी. ये विकास की पटरी पर सरपट दौड़ती भारतीय अर्थव्यवस्था का ही एक चेहरा है. यह उस भारत का चेहरा है, जिसकी बात अक्सर राहुल गांधी करते हैं. वो हिंदुस्तान जहां विकास की गाड़ी रुकती नहीं, बल्कि धूल उड़ाती निकल जाती है.
अभी कुछ दिन पहले सबरीमाला मंदिर में हुयी भगदड़ में कई लोग मारे गए थे. उस हादसे में भी जान गंवाने वाले लोग समाज के उस तबके से आते थे, जिन्हें आम आदमी कहा जाता है. और यहां भी हुए हादसे में गरीब और बेरोजगार लोगों ने ही अपनी जान गंवाई है. यह नौ फीसदी की दर से बढ़ते भारत की बहुसंख्यक जनता का हाल है. जिनके लिए अर्थव्यवस्था की चकाचौंध और मुद्रा स्फीति की दर सब मायने नहीं रखतीं. मायने रखती हैं, तो अपने लिए दो वक्त की रोजी रोटी का जुगाड़ करना. सवाल कई हैं और जवाब किसके पास है, यह भी सोचने की बात है..
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