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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

ये "कमबख्त" वेलेंटाइन (व्यंग्य)

ऐ लो जी... फिर आ धमका ये कलमुंआ. हर साल आ जाता है मुंह उठाए. ऐवें ही हम कम परेशान हैं जो ये भी चला आया. अभी पिछले साल ही तो आया था. हम ही जानते हैं कि किस तरह इस दिन हमनें यह दिन था गुजारा. और अगर आना ही था, तो चुपचाप नहीं आ सकता था, इतना शोर मचाने की क्‍या जरूरत थी. हफ्ता भर पहले से अपने 'रिश्‍तेदारों' को भेजने की कोई जरूरत थी क्‍या भला. और अपने आने से पहले इतना ही हो-हल्‍ला नहीं मचाता तो इसका क्‍या बिगड़ जाता. मैसेज भेज-भेजकर संदेशा भेजता है, 'लो... जी मैं आ गया, मैं आ गया' ये भी कोई तरीका है भला. किसी 'दिलजले' का दिल जलाना अच्‍छी बात नहीं.

इससे पहले कि आपके दिमाग की बत्‍ती गुल हो. या आपको मेरी मानसिक स्थिति पर संदेह हो. मैं आपको बता दूं‍ कि बंदा अपने किसी रिश्‍तेदार से परेशान नहीं है. न ही कोई बिन बुलाया दोस्‍त ही आने वाला है. अपन तो इस करमजले वेलेन्‍टाइन से परेशान हैं. हां आपके दिल में संदेह उठ सकता है कि इस प्‍यार के दिन से हमें क्‍या ऐतराज हो सकता है भला. अमां यार, एक तो हम अकेले ऊपर से ये दिल पर बिजलियां गिराने चला आया. वो भी विदेशी तड़के के साथ. ये मुए गोरे तो हमेशा से ही अपन का दिल दुखाते चले आए हैं.

हाथों में हाथ डाले या गले लिपटे इन आजकल के लैला मजनुओं को देखकर हमारे सीने पर कितने सांप लोटते हैं कुछ अंदाजा है आपको. ऊपर से बाइक पर ऐसे बैठेंगे कि हवा भी सोचती होगी कि गुजरूं कहां से. इन रोमियो जूलियट के हिन्‍दुस्‍तानी अवतारों को देखकर अपन का जो हाल होता है ना... बस पूछो ही मत. बस में लटके हुए जब खिड़की के बाहर ऐसे नजारे दिखाई पड़ते हैं ना, तो एक बार को दिल की धड़कन रुक जाती है. पहले तो चलो‍ किसी तरह दिल बहल भी जाता था, लेकिन इस दिन या कहें इस हफ्ते ये बैरी भी अपने कंट्रोल में नहीं. सच कहूं तो इसी दिन लगता है, 'यार आई एम सिंगल'. फेसबुक से लेकर ऑर्कुट हर जगह यही चस्‍पा रखा है कि कभी, कहीं किसी की नजर पड़ जाए. और बंदे का फंदा कहीं लग जाए. लेकिन ना... सब कहीं न कहीं उलझे हैं.
कंपनी वाले एसएमएस भेज-भेजकर जख्‍मों को ताजा किया करते हैं. 'प्‍यार का हफ्ता आया'. फिजाओं में घुला प्‍यार, यहां भी प्‍यार वहां भी प्‍यार. सब... बकवास. ये लोग जितना दिल दुखाते हैं, खुदा कसम बयां भी नहीं किया जा सकता. हां, इस दिन अपनी 'नैतिकता' का मान अपने चरम पर होता है. 'इश्‍क-विश्क' बेकार की चीज है. अपने पास इतना फालतू टाइम नहीं. यार, ये सब बेकार के खर्चे हैं. नो गर्लफ्रेंड, नो टेंशन. इन्‍हीं सब बहानों से बहलाना पड़ता है दिल को. कुछ-कुछ चचा के अंदाज में 'दिल को खुश रखने का गालिब ये ख्‍याल अच्‍छा है'.
एक 'हमदर्द' ने कहा यार घर ही बैठ जाया करो. ना बाहर जाओगे, ना दिल दुखेगा. अब क्‍या बताया जाए कि अगर घर बैठ जाएं, तो अगले दिन लोग जीने नहीं देंगे. अंखियों से सवाल दागे जाएंगे- कहां थे, किसके साथ थे और कैसा रहा दिन. हुम्‍म... और भी ना जाने क्‍या-क्‍या. अब उन्‍हें क्‍या बताएं कि ये सवाल कर देते हैं दिल को घायल. यही जवाब देते हैं कि भाई मियां तुम्‍हारी कोई भाभी नहीं. लेकिन, मानने को तैयार ही नहीं. यह बिन पूछे सवालों के तीर दिल को भेद कर रख देते हैं. और अगर कहीं घर बैठकर कुढ़ने की बजाए बाहर निकल लें तो ये 'लव बर्ल्‍ड, बर्ल्‍ड फ्लू कर देते हैं. यहां वहां हर जगह मोहब्‍बत के कार्ड पटे पड़े होते हैं. दिल में हवा भरकर सड़क किनारे बेचा जाता है (गुब्‍बारों की बात कर रहा हूं). दिल करता है सुई लेकर सब के सब फोड़ डालूं. मगर फिर मन मसोट कर रह जाता हूं.

किसी ने सलाह दी उम्र निकली जा रही है, अब शादी कर लो. सब कष्‍ट दूर हो जाएंगे. वैसे, अपुन को भी बढ़ती उम्र का अहसास होने लगा है. बालों में से झांकती सफेदी बताने लगी है, बाबू अब उम्र जाने लगी है. अगर अभी कुछ और वक्‍त यही हाल बना रहा तो बालों में खिजाब लगाने के विज्ञापन की तरह लोग 'अंकल' कहकर जाने लगेंगे (कुछ तो अभी से कहने लगे हैं). कोई उपाय नहीं सूझ रहा. अगर आपके पास कोई हल हो तो बताइयेगा. इस वेलेन्‍टाइन फीवर से छुटकारा दिलाइएगा.

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