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मंगलवार, 17 जनवरी 2012

तुम्‍हारी मुस्‍कान...

कितनी प्‍यारी थी तुम्‍हारी हँसी. नरम... नाजुक... फूलों की छुअन जैसी. किसी राही की मंजिल जैसी . तुम्‍हें मुस्‍कुराता देख थम जाती थी दुनिया सारी. रुक जाती थी ये कायनात. सांसें की रफ्तार भी पड़ जाती थी मद्धम. क्‍या सोचने लगे तुम... याद है मुझे कि कई बार मैंने ही छीनी है तुम्‍हारे चेहरे से यह मुस्‍कुराहट. मैंने ही कई बार तुम्‍हारी पलकों को किया है भारी. मुझसे छुप-छुप कर कई बार रोए हो तुम. सब याद है मुझे. लेकिन, अब जब तुम्‍हें देखता हूं तो खुशी होती है. फिर से लौट आई है तुम्‍हारे चेहरे की वो हँसी. हां, इस बार इसकी छुअन का अहसास प्रत्‍यक्ष मुझे नहीं. और बदल गया है इस बार मंजिल का राहगीर भी.

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