चिट्ठाजगत www.blogvani.com

मंगलवार, 5 जून 2012

बूंदों की जुबां

बरसात में भीगना तो पहले भी पसंद था/ लेकिन तुझसे मिलकर यह आनंद परमानंद में बदल गया/ तूने ही सिखायी थी बूंदों की जुबान/ तूने ही कहा था कि सुनो... बहुत कुछ कहती हैं ये बूंदे/ जमीं से इस कदर मिलती हैं जैसे बरसों बाद मिले हों दो प्रेमी/ बस एक पल के लिए होता है इनका मेल और इसके बाद बूंद अपना अस्तित्‍व मिटा समा जाती है जमीं की गोद में/लेकिन, यह एक पल कई सदियों पर भारी है, यह सब भी तूने ही समझाया था/ वो तुम ही थे जिसने कहा था कि बूंद मरती नहीं, बल्कि अपने वजूद को भुला प्रेम की नयी परिभाषा गढ़ जाती है/ जमीं में समाकर उसे नवजीवन की शक्ति दे जाती है/ हां वो तुम ही थे... बूंदों की इस दुनिया से मेरा तार्रुफ कराने वाले.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें