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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

इतना मजबूर है ये इंसा


इतना मजबूर है ये इंसा कि क्‍या कीजिए
कोई तो दर्द-ए-दिल की दवा कीजिए।
अब रोकर भी नहीं मिलता है चैन यहां पर
मिलता हो जहां चैन मुझे उसका पता दीजिए।

यूं तो हर किसी मिला कीजिए, मगर ज़रा फ़ासला रखिए
दिल में रखिए ज़ख्‍़म, लबों पर अपने दुआ रखिए।
कहिए न किसी से यूं हाल-ए-दिल अपना
अपनी दौलत को निगाह-ए-बद से बचा रखिए।

तिजारत की रवायत ने मोहब्‍बत को भी मारा है
जिधर देखो उधर बस इक यही नज़ारा है
मैं कह दूं अगर हक़ीकत तो उसे इल्‍ज़ाम न कहना
मेरे दोस्‍तों ने ही मुझको बारहा मारा है।

वफ़ा का दरिया कब का सूख चुका
था जो कभी तेरा, तुझे कब का भूल चुका।
अब क्‍यों रोशन रखते हो यादों की शमां
नशेमन तेरा कब का तूफान लूट चुका।

मर चुका है यहां लोगों की आंखों का भी पानी
आप तो अपना आब-ए-चश्‍म बचा रखिए।
मौत भी आ जाएगी जिस रोज़ आना होगा उसे
अभी ज़रा दर्द-ए-जीस्‍त सहने का हौसला रखिए।

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